रतन टाटा क्या टॉवर ऑफ साइलेंस में रखे जाएंगे...ईरान में मुस्लिमों के उत्पीड़न से भारत आए पारसियों के शव गिद्धों के हवाले क्यों?

नई दिल्ली: भारत के 'रत्न' दिग्गज कारोबारी रतन टाटा का 86 साल की उम्र में निधन हो गया। उन्होंने मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में अंतिम सांस ली। उनका अंतिम संस्कार पारसी रीति-रिवाजों के तहत किया जाएगा। दरअसल, पारसी लोगों के रीति रिवाज हिंदुओं के द

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नई दिल्ली: भारत के 'रत्न' दिग्गज कारोबारी रतन टाटा का 86 साल की उम्र में निधन हो गया। उन्होंने मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में अंतिम सांस ली। उनका अंतिम संस्कार पारसी रीति-रिवाजों के तहत किया जाएगा। दरअसल, पारसी लोगों के रीति रिवाज हिंदुओं के दाह संस्कार और मुस्लिमों के दफनाने की प्रथा से बेहद अलग है। पारसी लोगों का यह मानना है कि मानव शरीर प्रकृति का दिया एक उपहार है। ऐसे में मौत के बाद उसे प्रकृति को लौटाना होता है। दुनियाभर में पारसी इसी तरह शवों का अंतिम संस्कार करते हैं। शवों को टॉवर ऑफ साइलेंस में रखा जाता है। जानते हैं कि कैसे होते हैं पारसी धर्म के लोगों के अंतिम संस्कार, कहां से आई ये परंपरा और क्या हैं इसके नियम। पारसी लोगों के शव गिद्धों के हवाले क्यों किया जाता है।

टॉवर ऑफ साइलेंस यानी प्रकृति की गोद में शव

टावर ऑफ साइलेंस एक ऐसी जगह है जहां पारसी लोग अपने प्रियजनों के मरने के बाद उनके शवों को प्रकृति की गोद में छोड़ देते हैं। यह प्रथा प्राचीन समय से पारसी समुदाय में चली आ रही है। इसे दखमा भी कहते हैं। पारसी समुदाय के लोगों के शवों को ‘टावर ऑफ साइलेंस’ पर छोड़ने की परंपरा रही है, जहां गिद्ध इन शवों को खा जाते हैं। इसे शव को 'आकाश में दफनाना' भी कहा जाता है। हालांकि, नई पीढ़ी के पारसी अब इस तरह के अंतिम संस्कार पर ज्यादा जोर नहीं देते हैं। रतन टाटा का भी अंतिम संस्कार पारसियों के बनाए विद्युत शवदाह गृह में किया जा सकता है।

tower of silence

क्यों शवों को जलाते या दफनाते नहीं हैं पारसी

पारसी शव को जलाने, दफनाने या पानी में बहाने के बजाय टॉवर्स ऑफ साइलेंस में गिद्धों के खाने के लिए छोड़ देते हैं। गिद्ध शवों के मांस खा जाते हैं तो बची हुई हड्डियों को गड्ढे में डालकर दबा दिया जाता है। अंतिम संस्कार की इस परंपरा को दोखमेनाशिनी या दखमा कहते हैं। पारसी धर्म में शव को जलाना या दफनाना प्रकृति को गंदा करना माना जाता है। पारसी धर्म में पृथ्वी, जल और अग्नि को बहुत पवित्र माना जाता है। इसलिए, शवों को इन तीनों के हवाले नहीं दिया जाता।
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क्या होता है अरंध, जिसे करना बेहद जरूरी

पारसी समुदाय में मरने के बाद भी किसी जीव के काम आना पुण्य माना जाता है। पारसी लोग मानते हैं कि दाह संस्कार और जमीन में दफनाए जाने से ये धरती पर मौजूद तीन मूल तत्व मिट्टी, जल और अग्नि दूषित हो जाते हैं। पारसी समुदाय में शव को अपवित्र माना जाता है। टॉवर ऑफ साइलेंस में शव रखने के बाद मृतक की आत्मा की शांति के लिए चार दिन प्रार्थना की जाती है, जिसे अरंध कहते हैं।

गिद्धों की घटती आबादी के चलते अंतिम संस्कार में बदलाव

गिद्धों की घटती आबादी के चलते पारसी समुदाय को शवों के अंतिम संस्कार के तरीकों में भी बदलाव करना पड़ा है। टाटा संस के पूर्व चेयरमैन साइरस मिस्त्री की सड़क दुर्घटना में मौत के बाद उनका अंतिम संस्कार पारसियों के बनाए विद्युत शवदाह गृह में किया गया था। दुर्घटना में जान गंवाने वाले जहांगीर पंडोल के शव को दक्षिण मुंबई के डूंगरवाड़ी में स्थित ‘टॉवर ऑफ साइलेंस’ में छोड़ दिया गया, क्योंकि उनके परिवार ने अंतिम संस्कार के लिए पारंपरिक रीति-रिवाज को प्राथमिकता दी थी। 2015 से पारसी समुदाय के बीच अंतिम संस्कार के तरीके में बदलाव आया है।
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गिद्धों की आबादी 4 करोड़ से घटकर 19 हजार रह गई

एक रिपोर्ट के अनुसार, देश में गिद्धों की आबादी 1980 के दशक में 4 करोड़ थी, जो 2017 तक घटकर मात्र 19,000 रह गई। इसके चलते पारसी समुदाय के बीच अंतिम संस्कार का तरीका बदला है। सरकार ने गिद्धों की आबादी में गिरावट को रोकने के लिए राष्ट्रीय गिद्ध संरक्षण कार्य योजना 2020-25 के माध्यम से एक पहल शुरू की है, जिसमें कुछ कामयाबी भी मिली हैं।

गिद्धों की आबादी में गिरावट के पीछे डाईक्लोफेनाक दवा

गिद्धों की आबादी में गिरावट के लिए सूजनरोधी दवा ‘डाइक्लोफेनाक’ के इस्तेमाल को जिम्मेदार ठहराया गया है, जो मवेशियों के इलाज के दौरान उन्हें खिलाई जाती है। ऐसे मवेशियों के मरने के बाद जब गिद्धों ने उन्हें खाया तो वो भी मरने लगे, इससे गिद्धों की आबादी प्रभावित हुई। 2006 में इस दवा पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।
Parsi community last rituals


देश में पारसियों की भी घट रही आबादी

गिद्ध कुछ ही घंटों के भीतर शरीर पर से मांस साफ कर देते हैं, वहीं कौवे और चील बहुत कम मांस खा पाते हैं, जिसके चलते कई शवों को खत्म होने में महीनों लग जाते हैं और उनसे बदबू फैलती है। पारसी समुदाय के लोगों की संख्या में भी तेजी से गिरावट आ रही है। 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में केवल 57,264 पारसी थे। सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने समुदाय की आबादी में गिरावट को रोकने के लिए कई उपाय किए हैं, जिसमें 'जियो पारसी' पहल शुरू करना शामिल है।


ईरान में उत्पीड़न की वजह से भागकर भारत आए थे पारसी

पारसी धर्म में अंतिम संस्कार की यह परंपरा करीब 3 हजार सालों से चली आ रही है। पारसी लोग ईरान में पनपे थे, मगर 1000 साल पहले ईरान में हुए उत्पीड़न की वजह से वो भागकर भारत के पश्चिमी तटों पर आए। वहां वह गुजरात और मुंबई जैसे इलाकों में बस गए। उन्हें एक ज्वाला मिली जिसके बारे में कहा जाता है कि वह दक्षिण गुजरात के उदवाडा में एक अग्नि मंदिर में अभी भी जलती है।

कौन हैं पारसी, ये किसे मानते हैं

पारसी मूल रूप से ईरान में फारसी जोरास्ट्रियन के वंशज हैं और वे मुस्लिमों के धार्मिक उत्पीड़न से बचने के लिए भारत आए थे। उस वक्त ईरान में तलवारों के बल पर तेजी से धर्मांतरण किया जा रहा था। पारसी शब्द फारसी भाषा से लिया गया है। पारसी धर्म को जरथुस्त्र धर्म भी कहा जाता है। इसकी स्थापना पैगंबर जरथुस्त्र ने की थी। जरथुस्त्र ने सिखाया था कि केवल एक भगवान अहुरा मज्दा था। अहुरा का अर्थ है भगवान और मज्दा का अर्थ है बुद्धिमान। पारसी धर्म दुनिया के सबसे पुराने एकेश्वरवादी धर्मों में से एक है। पारसी, भारत और पाकिस्तान में एक जातीय अल्पसंख्यक हैं।

पाकिस्तान के कराची शहर में भी रहते हैं पारसी

भारत में पारसियों की आबादी करीब 60,000 है। पारसी मुख्य रूप से मुंबई और मुंबई के उत्तर में कुछ कस्बों और गांवों में रहते हैं। पारसी लोग कराची (पाकिस्तान) और बेंगलुरु (कर्नाटक) में भी रहते हैं। पारसी धर्म के अनुयायी अहुरा मज्दा को सर्वोच्च देवता मानते हैं। पारसी धर्म के अनुयायी यजातस के नाम से जाने जाने वाले कम देवताओं में भी विश्वास करते हैं।

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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